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विभिन्न रामायण एवं गीता >> भगवती गीता

भगवती गीता

कृष्ण अवतार वाजपेयी

प्रकाशक : भगवती पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :125
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6276
आईएसबीएन :81-7775-072-0

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गीता का अर्थ है अध्यात्म का ज्ञान ईश्वर। ईश्वर शक्ति द्वारा भक्त को कल्याण हेतु सुनाया जाय। श्रीकृष्ण ने गीता युद्ध भूमि में अर्जुन को सुनाई थी। भगवती गीता को स्वयं पार्वती ने प्रसूत गृह में सद्य: जन्मना होकर पिता हिमालय को सुनाई है।

गीता साहित्य

 

'धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे।' भारत भूमि धन्य है। धन्य हैं भारत में रहने वाले; क्योंकि भारत ही ऐसा देश विश्व में है जहाँ हर युग में दानव औधाक्षस संहार हेतु प्रभु ने अनेक रूपों में जन्म लिया है। कभी अपने भक्तों की रक्षा हेतु तो कभी भक्तों की कामना पूर्ति हेतु उनको इस पवित्र धरा पर आना पड़ा है। गीता में स्पष्ट ही श्री कृष्ण कहते हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

अर्थात् धर्म का जब-जब हास होता है, धर्म अर्थात् कर्त्तव्य सदसद् विवेक का अहंकार के कारण लोप होता है., अन्याय, अत्याचार, अमर्यादा का आचरण होने लगता है तब मैं पुनः मर्यादा, शान्ति, न्याय की स्थापना हेतु किसी-न-किसी रूप में जन्म (अवतार) लेता हूँ। जहाँ गंगा जैसी पवित्र पावनी नदी है, सुरम्य वातावरण है। कहा गया है कि वही देश धन्य है जहाँ तीनों लोकों को पवित्र करने वाली गंगा प्रवाहित है। जो देश गंगा से रहित है उसे प्रशस्त देश नहीं कहा जा सकता। गंगा के पावन तट पर भिक्षा माँगना भी श्रेष्ठ है। वहाँ प्राणान्त होना और भी श्रेयस्कर है-

गंगातीरं परित्यज्य योऽन्यत्र निवसेन्नरः।
करस्थां संत्यजमुक्तिं सोऽन्वेषी नरकस्य तु।।
धन्यः स देशो यत्रास्ति गंगा त्रैलोक्यपावनी।
गंगाहीनस्तु यो देशो न प्रदेशः स भण्यते।।

ऐसी पवित्र भूमि पर ऋषि मुनियों सन्तों, और श्रेष्ठ विचारकों का सदा सम्मान हुआ है। यहाँ अध्यात्म की सुखद धारा प्रवाहित होती रही है। यहाँ के निवासी भौतिकता का सदा तिरस्कार करने के अभ्यासी हैं, परहित ध्येय रहा है। भौतिकवाद सदा कष्ट का कारण रहा है तभी प्राचीन भारतीय सम्राट त्याग करते रहे हैं। महाराज भगीरथ, अशोकादि इसके उदाहरण हैं।

इस त्याग भावना को पुष्ट करने वाले हमारे धार्मिक ग्रन्थ हैं। जब मनुष्य इस जगत में कष्ट ही कष्ट देखता है और उससे तृषित मानव समाज को देखता है-कहीं शान्ति नहीं, कहीं भी स्थायी सुख नही; पुत्र, स्त्री बन्धु-बान्धव सभी स्वसुख और स्वार्थ में लिप्त हैं तो मनुष्यता काँप जाती है, विश्वास जर्जर होने लगता है। उस समय एकाकी, असहाय, मरणोन्मुख दुखी प्राणी को ईश्वर ही आश्रयदाता दिखाई देता है। वही शान्ति की अनुभूति होती है। वही आश्रय और सात्त्वना देता है। यही अध्यात्म की आधारशिला है।

स्वोभावः स्वरूपं प्रत्यक् चैतन्यम्।
आत्मानं कार्यकारण संधातं देहमधिकृत्त्य
भोन्तयावर्तमानमध्यात्ममुच्यते।
आत्मविषय दर्शन।
आत्मविषयमध्यात्मम्।

प्राचीन काल से भारतीय मनीषी एक मत से यह मानते आ रहे हैं कि यह दृश्यमान जगत् जो स्थूल है, यहाँ कुछ भी स्थायी नही है, सब क्षणिक है। इसीलिये बौद्ध इसे सर्वं क्षणिक क्षणिक कहते हैं। गीता स्पष्ट कहती है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्य होगी। सबकी स्थिति एक समय-सीमा तक ही है। जड़-चेतन सब नश्वर है। नश्वर जगत् में नश्वर ही रहेगा। स्थायी यदि कोई है तो पराप्रकृति। इस विचारधारा का श्रीगणेश वेद काल से आरम्भ होकर आज तक प्रवाहित है और आगे भी रहेगा। विज्ञान कितना ही प्रगति कर ले किन्तु प्रकृति का एक झटका एक क्षण में विज्ञान का खोल तोड़ देता है, वैज्ञानिक विस्फारित नेत्रों से प्रकृति नटी का नृत्य देखकर मौन हो जाता है। यहीं अध्यात्म प्रारम्भ होता है।

अध्यात्म आत्मा का बल है, शक्ति है, ऊर्जा है। इस डगर पर वही चल सकता है जिसकी आत्मा प्रबल है, जिसमें जिज्ञासा है, उत्कण्ठ है जो संयतेन्द्रिय है। कामी, लोलुप, ईर्ष्यालु प्रभु खोज में नहीं लग सकता। यथा मलिन पात्र में डाला गया निर्मल जल भी पीने योग्य नहीं रहता अथवा मलिन दर्पण में प्रतिबिम्ब नहीं दिखता है, वैसे ही मलिन हृदय में अध्यात्म का प्रवेश भी नहीं होता है। यदि अति प्रयास से क्षण भर को अध्यात्म ने प्रवेश कर भी लिया तो वह वैसे ही निकल जायगा जैसे टूटे या क़ि वाले पात्र से जल निकल जाता है। अस्तु, अध्यात्म के लिये संयत चित्त, लगन, सत्संग और अभ्यास की आवश्यकता होती है। इसे धर्म की संज्ञा दी जाती। धर्म धारणा का नाम है अर्थात् जो धारण किया जाय। धर्म बहुरूपी है। संस्कृत मथों में इसे कर्त्तव्य अर्थ में लिया गया है। धर्म का अपर नाम कर्तव्य है। धर्माधारित कर्म जनहित के लिये होते है। धर्म एक ही है कि वह मानव और प्राणि समूह पर दया, कृपा, सेवा का भाव रखे।

अध्यात्म का प्रारम्भ वैदिक काल से होता हुआ अद्यावधि पर्यन्त जाह्नवी की भांति सर्वजन को पावन कर रहा है। किसी न किसी आयु में इसका आश्रय प्राणी लेता ही है इसका भाषाओं द्वारा भी विस्तार हुआ है। संस्कृत से निकलकर हिन्दी, मराठी, बंगाली, आदि भाषाओं में अपना स्थान बना चुका है।

अध्यात्म को उपनिषदू पुराण काल ने अधिक विस्तार दिया है। इसमंह भी गीता साहित्य को विशेष श्रेय जाता है। संस्कृत साहित्य के अनेक मथों में कोई-न-कोई गीता विद्यमान है। अध्यात्म रामायण में राम गीता, महाभारत में भगवद्गीता, अनु गीता, काम गीता, ब्राह्मण गीता, पुराणों में ईश्वर गीता, धीश गीता, गोपी गीता, अष्टावक्र गीता, नारद गीता, गणेश गीता, विष्णु गीता, शिव गीता, भगवती गीता आदि अनेक गीताएँ हैं। गीता का अर्थ है-(ग्+ई+त्+फ़+आ। ग्र+गायन, ई= ईश्वर, त,= तारन, मोक्ष, आ=अध्यात्म। ईश्वर द्वारा मोक्ष देने वाला, कल्याण करने वाला अध्यात्म का गायन या उपदेश गीता। अर्थात् ईश्वर द्वारा या आदिशक्ति द्वारा मानव को मोक्ष देने हेतु, दुःख से मुक्ति हेतु कल्याणकारी अध्यात्म विद्या का उपदेश ही गीता है। ये गीताएँ अध्यात्म विद्या का निरूपण करती हैं।

अनुगीता-इसके वक्ता श्री कृष्ण और श्रोता अर्जुन हैं। इसमें छत्तीस अध्याय तथा 1038 श्लोक है। यह गीता की भाति कर्म, भक्ति और ज्ञान का उपदेश प्रत्यक्ष नहीं देती परोक्ष रूप से देती है। अनुगीता को इतिहास रूप में कहा गया है। इसमें जीव की विविध गतियां, जीव का जन्म, आचार धर्म, कर्म फल, मोक्ष का उपाय, ज्ञान यज्ञ की शिक्षा, मन-वाणी की श्रेष्ठता, पञ्चवायु, ब्रह्म की प्रधानता, क्षेत्र क्षेत्रज्ञ रहस्य, त्रय गुण, आत्मा-परमात्मा का स्वरूप आदि पर प्रकाश डाला गया है।

अनुगीता में गीता की भांति ही कर्म, ज्ञान और भक्ति का सुन्दर वर्णन है किन्तु माध्यम इतिहास द्वारा है। उसका आध्यात्मिक पक्ष इस प्रकार है।

पञ्चभूतों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के विषय में मन प्रधान माना गया है। मन पञ्चमहाभूतों तथा महत्तत्त्व का अधिष्ठता है और बुद्धि मन का ऐश्वर्य है। वही मन क्षेत्रज्ञ कहलाता है। यथा उत्तम सारथि चञ्चल घोड़ों का नियंत्रण करता है वैसे ही मन इन्द्रियों का नियंत्रण करने वाला है। इन्द्रियां बुद्धि को सदैव क्षेत्रज्ञ से युक्त किया करती है। मूतात्मा, शरीराभिमानी जीव, महत्तत्त्व और इन्द्रिय रूपी अश्वों से तथा बुद्धि रूपी सारथी से युक्त रथ पर सवार होकर सर्वत्र भ्रमण किया करता है। जिसमें अपने नियंत्रण र्मे की हुई इन्द्रिय रूपी अश्व जुते हैं, जिसका मन सारथि और बुद्धि चाबुक है, उस ब्रह्म के विकारभूत शरीर को महारथ समझना चाहिए। जो योगी जन इस ब्रह्ममय रथ का रहस्य भली-भांति जानते हैं वे कभी मोहित नहीं होते। आदि भूत, अव्यक्त और शेष स्वरूप विशेष युक्त स्थावर और जंगममय, चन्द्र और सूर्य की प्रभा से प्रकाशवान् ग्रहों तथा नक्षत्रों से मण्डित, नदियों और पर्वतों से विभूषित, जल से विविध प्रकार से अलंकृत, सर्वभूतों का जीवन स्वरूप तथा समस्त प्राणियों का गति स्वरूप, परब्रह्म जिसमें सदैव विराजमान रहता है उसी में क्षेत्रज्ञ विचरण करता है। इस संसार में स्थावर, जंगम आदि सभी सत्त्व पहले लीन होते हैं, फिर सूक्ष्म शरीराम्भक पञ्चभूत लीन होते हैं। तत्पश्चात् पञ्चमहाभूतों के शब्दादि गुण लीन होते हैं। ये ही दो शरीर रूपी भूत समुच्छय हैं। देवता, मनुष्य, गन्धर्व, पिशाच आदि ये सब स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। इनकी उत्पत्ति क्रिया या कारण से नहीं होती है।

समुद्र से उठी हुई लहरें यथासमय उसी में लीन (खो) हो जाती हैं, विश्व की रचना करने वाले प्रजापति पञ्चमहाभूतों से उत्पन्न होकर उर्न्ही में लीन हो जाते हैं किन्तु विश्व की रचना वाले भूतों के लय होने पर भी पञ्चमहाभूत विद्यमान रहते हैं। पुरुष उन्हीं भूतों से छूटने पर परमगति प्राप्त करता है। ब्रह्मा ने इच्छमात्र से यह जगत रचा है। ऋषियों ने तपस्या द्वारा देवत्व पाया है, फल मूल भोगी सिद्ध मुनि साधनानुसार तप द्वारा समाहित चित्त होकर त्रयलोक के दर्शन करते हैं। रोग विनाशिनी औषधियों तथा अनेक विधाओं की सिद्धि भी तपस्या द्वारा ही हुआ करती है क्योंकि साधन का मूल तो तप ही है। जो महात्मा पुरुष केवल ध्यान योग करते हैं वे ममतारहित तथा निरहकारी होकर उत्तम महल्लोक प्राप्त करते हैं। मननशील पुरुष को उचित है कि वह मन लगाकर ज्ञान प्राप्त करे तथा संयत होकर रहे। चित्त का ही दूसरा नाम मन है। मन को अधीन करके सनातन ईश्वर को जानना चाहिए। 'मम' इन दो अक्षरो को मृत्यु और 'न मम' इन तीन अक्षरों को शाश्वत ब्रह्म समझो। पारदर्शी पुरुष को कर्म में अनुराग नहीं करना चाहिए। यह पुरुष विद्यामय है, कर्ममय नर्ही। पुरुष उस अमृत, नित्य, अग्राह्य, परमश्रेष्ठ, अविनाशी, जितचित्त और असंग पुरुष को जानकर अमर हो जाते हैं। श्री कृष्ण ने भी स्वयं को गुरु और अपने मन को शिष्य माना है।

काम गीता-काम गीता सबसे लेटी है। इसमें एक ही अध्याय है तथा चौदह श्लोक हैं। वक्ता श्रीकृष्ण और श्रोता पाण्डव जेष्ठ धर्मराज युधिष्ठर हैं। काम गीता अन्य गीताओं की भांति बाह्य पदार्थों के त्याग से ब्रह्म प्राप्ति की सफलता में विश्वास नहीं रखती है-'न बाह्यं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति भारत। सुख-विलास में आसक्ति रखना सच्चा त्याग नहीं है। सच्चानन्द कामनाओं को वश में करने में है। कामनाओं में आसक्त रखने वाला त्यागी नहीं है, प्रशंसनीय नही है। कामनाएँ मन से उत्पन्न होती हैं, ये कामनाएँ ही दुःख का मूल हैं।

कामात्मानं न प्रशंसन्ति लोके
नेह्मकामा काचिदस्ति प्रवृत्तिः।
सर्वे कामा मनसोऽगं प्रभूता
यान् पण्डितः संहरते विचिन्त्य।।

मन पर विजय प्राप्त करने वाला ही जितेन्द्रिय है, वही जगत कष्ट से मुक्त होता है। कामनाओं का निग्रह ही धर्म है, वही मोक्ष का मूल साधन है। काम (ममता, आसक्ति) का कभी नाश नहीं होता, उसे योगाभ्यास से निग्रह किया जा सकता है। काम अपना रूप बदल लेता है। निष्काम होने के लिये योगाभ्यास अनिवार्य है। तभी मोक्ष सम्भव है, अन्यथा नहीं।

रामगीता-राम गीता उमा महेश, सम्वाद रूप में है। इसमें वक्ता शिव और श्रोता पार्वती है। शिवजी पार्वती को वह ज्ञान बता रहे हैं जो श्रीराम ने लक्ष्मण को दिया था। हाँ! यह अवश्य है कि गीता ज्ञान तभी दिया गया है जब जिज्ञासु ने नम्रतार्त्तक शरणागत होकर पूछा है, अन्यथा नहीं। लक्ष्मण ने शरणागत हो श्रीराम से ज्ञानोपदेश की जिज्ञासा प्रकट की तब श्रीराम ने कहा कि स्व-स्वाश्रम द्वारा चित्त शुद्ध होने पर कर्मों की आसक्ति त्यागकर गुरुशरण लेनी चाहिए। कर्म शरीरजन्य है जो पुनर्जन्म का कारण है। अज्ञान ज्ञान-प्रकाश से नष्ट होता है। सकाम कर्म अज्ञानजन्य है जो दोषों में वृद्धि करता है। कर्म विद्या (आत्मज्ञान) का विरोधी है उसका समुच्चय नहीं होता। जब तक आत्मभाव या 'स्व' का अस्तित्व रहेगा तब तक माया रहेगी। परमात्मा और जीवात्मा के भेद नष्ट के साथ ही माया तिरोहित हो जाती है। ज्ञान स्वतन्त्र है तथा मोक्ष देने में समर्थ है-तस्माक्यतन्त्रा न किमप्यपेक्षते, विद्या विमोक्षाय विभाति केवला।

'तत्त्वमसि' का अर्थ योग्य गुरु ही बता सकता है। 'सत्' परमात्मा, 'त्वम्' जीवात्मा वाचक है, 'असि' इनमें एकता स्थापित करता है। शरीर आत्मा की स्थूल उपाधि प्रथम शरीर; बुद्धि सहित ग्यारह इन्द्रियाँ, पञ्चप्राण आत्मा का दूसरा शरीर, अनादि अनिर्वाव्य कारण शरीर जीव का तीसरा शरीर है। आत्मा विभिन्न कोशों में जाकर उर्न्ही का आकार ग्रहण कर लेती है यथा जल पात्रानुसार रूप लेता है। आत्मा असक्रूप और अजन्मा है। इस सत् (ब्रह्म) का जगत से चयन कर शेष भोगों (विषयों) का परित्याग उसी भाति कर देना चाहिए यथा नारियल के जल का पान कर उसे त्याग दिया जाता है-त्यजेदशेषं जगदात्तत्सद्रसं पीत्वा यथाम्मः प्रजहाति तस्थ्यम्। ईश्वर में जगत की प्रतीति रस्सी में सर्प की सी प्रतीति है। अविद्या के कारण बुद्धि में प्रतिबिम्बित चेतना का प्रकाश जीव कहलाता है, आत्मा इससे अलग है। योग क्रिया से एकान्त में आत्मा की भावना करनी चाहिए। यह संसार वाच और ओंकार वाचक है-ओङ्कार मात्र सचराचर जगत्। तदेव वाच्यं प्रणवो हि वाचको। अ, उ, म तीनों वर्णों से, मुक्त नित्य मुक्त उपाधिहीन निर्मल परब्रह्म राम हैं। राम गीता में निर्गुण और सगुण दोनों ही मार्ग मोक्षप्रद हैं।

ईश्वर गीता-यह कूर्म पुराण के उत्तर भाग में है। इसमें ग्यारह अध्याय और 496 श्लोक हैं। इसमें वेदान्त और सांख्य का मिश्रण है। इसमें योग तथा संक्षेप में पाशुपत योग का परिचय दिया गया है। जो ज्ञानोपदेश ईश्वर का है वही ज्ञान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता में दिया था। इसके वक्ता भगवान शंकर और श्रोता ऋषिगण हैं। इस गीता में अद्वैत का ज्ञान अद्वितीय है। शिव एवं विष्णु में अभेद माना गया है। इसमें सम्प्रदायों को पर निन्दाभाव गर्हित माना गया है। यहां सम्प्रदायवाद की संकीर्णता न होकर उदारता और एकत्त्व है। यह गीता निराकार ब्रह्म रूप शिवत्त्व का उपदेश करती है फिर भी परमात्मा के सगुण रूप को उचित महत्त्व देती है। ज्ञान मार्ग की स्थापना के साथ ही भक्ति मार्ग तथा अभ्यास योग को भी महत्त्व दिया गया है। ईश्वर गीता का मत है कि सभी उपासनाएं एक ब्रह्म की ही उपासनाएं हैं। ईश्वर गीता, गीता तथा अनुगीता का ज्ञानोपदेश एक ही है। इनमे एक समान कर्म, ज्ञान और भक्ति की सार्थकता है। ईश्वर गीता में ऋषियों की ज्ञान विषयक जिज्ञासा होने के कारण ज्ञानयोग की प्रधानता है। ईश्वर गीता में वेदान्त, सांख्य और योग का नवनीत है किन्तु वेदान्त के सिद्धान्त की प्रधानता है। परमात्मा के उपास्य रूप शिव और विष्णु में अभेद का प्रतिपादन ईश्वर गीता की स्व विशेषता है। यहां ज्ञान को श्रेष्ठ माना गया है-

सर्वेषामेव भक्तानामिष्टः प्रियतमो मम।
योहि ज्ञानेन मां नित्यभाराधयति नान्यथा।

ईश्वर गीता की एक विशेषता और है कि इसमें उपदेश तो गोपनीय बताया गया है किन्तु अनधिकारी कोई नहीं है। ज्ञान के सब अधिकारी हैं। शूद्र भी अधिकारी हैं-

अन्येऽपि ये स्वधर्मस्थाः शूद्रा या नीचजातयः।
भक्तिमन्तः प्रमुच्यन्ते कालेनापि हि सगताः।।

श्रीधीशगीता-धीशगीता प्रश्नोत्तर विधा में है। इसमें प्रश्नकर्त्ता ऋषिगण और जिज्ञासा शान्त करने वाले श्रीधीश हैं। श्रीधीश को गीता में गणपति नाम से सम्बोधित किया गया है। यह गीता गणेश सम्प्रदाय की प्रतीत होती है। श्रीधीश गीता को उपनिषद् कहकर श्रीधीश गीता के नाम से प्रचारित किया गया है। श्रीधीश भगवान स्वयं धर्म रूप है। धर्म रूपी उनकी ही सनातनी शक्ति विराट सृष्टि के प्रवाह को धारण किये है। उनकी सत्त्व गुणमयी शक्ति ही धर्म है-

ममैव सात्त्विकी शक्तिर्नूनं धर्मो महर्षयः।
सात्त्विकी सैव धर्मोऽस्ति शक्तिमें नात्र संशय।।

श्रीधीशगीता मे साधारण और विशेष नाम से धर्म के दो भेद माने गये हैं। साधारण धर्म सर्वजीव हितकारी तथा चौबीस अंगों से सम्पन्न है किन्तु वर्ण और आश्रम धर्म विशेष है। वर्ण धर्म को प्रवृत्तिरोधक तथा आश्रम धर्म को निवृत्ति पोषक कहा गया है। विशेष धर्म का अन्तिम अधिकार संन्यास है। श्रीधीश भगवान की चेतन सत्ता का विकास ही शरीर-धारियों का क्रमिक जन्म माना गया है। श्रीधीशगीता उपनिषदों के तत्व (सार) तथा वेद समुद्र के अमृत वेदान्त का वर्णन करती है-

सर्वोपनिषदां सारः पीयूषं वेदवारिधैः।
विज्ञाः वेदान्तयोगम्यमिदानीं वर्ण्यते मया।।

श्रीधीश भगवान की प्रकृति रजोगुण से उत्पत्ति, सत्व गुण से पालन तथा तमोगुण से संहार करती है। इसमें स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर का विस्तार से वर्णन है। स्थूल शरीर को क्षण भंगुर मानकर छः भाव विकारी, 1. वर्तमान है, 2. उत्पन्न होता है, 3. बढ़ता है, 4. परिणाम को प्राप्त होता है, 5. क्षय होता है और 6. नाश होता है, से युक्त माना है जीव शरीर को पाँच कोशों वाला मानकर प्याज से उपमा दी गई है।

एकामुपर्य्युपर्य्येका पलाण्डुत्वग्यथा भवेत्।
पञ्चकोशास्तथा ज्ञेया जीवदेले निश्चितम्।।

श्रीधीश भगवान कहते हैं कि दस इन्द्रियाँ, पञ्चप्राण, पज्व तन्मात्राएँ, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार आदि 24 तत्त्व हैं। मैं ही पुरुष रूप 25 वाँ तत्व हूँ, मुझे परमतत्त्व भी कहते हैं। यह गीता वेदान्त का प्रतिपादन करती है।

अष्टावक्र गीता-अष्टावक्र गीता में आत्मज्ञान का विषय प्रतिपादित किया गया है। इसमें राजा जनक और अष्टावक्र जी के बीच होने वाला ज्ञानोपदेश प्रभावशाली है। एक समय भूपति जनक भ्रमण पर थे। मार्ग में ज्ञानी अष्टावक्र मिल गये। राजा ने उनको प्रणाम तो किया किन्तु उनके कुरूप शरीर को देखकर मन में घृणा का भाव आ गया। अष्टावक्र जी ने योगविद्या से उनका यह भाव जानकर कहा कि राजन्! मन्दिर के टेढ़े, लम्बे अथवा गोल होने से आकाश तो वैसा हो नहीं जायगा क्योंकि आकाश निरवयव है तथा मन्दिर सावयव है। अतः आकाश और मन्दिर का कोई सम्बन्ध नहीं है। ठीक वैसे ही आत्मा और शरीर का कोई सम्बन्ध नहीं है। आत्मा निरवयव है और शरीर सावयव है। आत्मा नित्य और शरीर अनित्य है। शरीर के धर्म वक्र, लम्बा या गोल आत्मा में नहीं आ सकते। यह भेद उस काल तक रहता है जब तक आत्मज्ञान नहीं होता।-अस्तु आत्मज्ञान उपार्जन करना चाहिए। जन्म-मृत्यु, हर्ष-विषाद आदि धर्म शरीर के हैं, आत्मा के नहीं। आत्मा एक है, अनेक नहीं। आत्मज्ञानी ही मुक्त है, उसे सुख-दु ख व्याप्त नही होते हैं। आप इस शरीर को देखकर हँस रहे हैं या इसमें रहने वाली आत्मा को?

विष्णु गीता-विष्णु गीता वैष्णव सम्प्रदाय की गीता है। इसमें विचारधारा श्रीमद्भगवद्गीता के सन्निकट है। विष्णु गीता घोषणा करती है कि द्वापर में इसी सिद्धान्त को कृष्ण मनुष्य रूप में अवतरित होकर पुनः प्रचारित करेंगे-

मर्त्यलोके पुनश्चास्याः कृष्णरूपेण वै सुराः।
द्वापरान्तेऽवतीर्याहं गीताया ज्ञानमुत्तमम्।।

श्रीकृष्ण ने महाभारत में अपना जैसा दिव्य रूप अर्जुन को दिखाया है वैसा ही विष्णु भगवान ने अपना दिव्यरूप अन्य देवताओं को दिखाया है। विष्णु गीता में लगभग एक सौ श्लोक गीता के प्राप्त होते हैं। ज्ञान, कर्म एवं योग में गीता, अनुगीता तथा विष्णुगीता समान विचारों वाली है। विष्णु गीता में भी चौबीस तत्व हैं तथा कर्म नष्ट करने हेतु ज्ञान खड्ग का आश्रय लिया गया है।

ब्राह्मण गीता-ब्रह्म निर्गुण है, उसका कोई लिंग नहीं है। इसी से इसका कारण भी नहीं ज्ञात होता, जिसके द्वारा वह ग्रहीत होता या नहीं होता उसका उपाय देखो। जैसे ऊपर उड़ने वाले भ्रमरों से सुरभि गन्ध का बोध होता है वैसे ही श्रवणादि उपाय पूर्णरीत्या अवगत होते हैं। जिसकी बुद्धि कर्मों द्वारा परिशोधित नहीं है वह पुरुष अबुद्धि से असत्र ब्रह्म को भी बुद्धि के आश्रित ससंग कहा करता है। मोक्ष प्राप्ति हेतु यह कर्त्तव्य है, यह अकर्त्तव्य है, ऐसा उपदेश कोई भी नहीं कर सकता, क्योंकि सुनने वाले और देखने वाले आत्मा की बुद्धि अपने आप मोक्ष के विषय में उत्पन्न होती है। इस संसार में मोक्ष का अंश अनेक अर्थ युक्त, समस्त पद रूपी, प्रत्यक्ष आदि प्रमाण रूपी, अव्यक्त माया अविद्या रूपी और व्यक्त शब्दादि रूप से सैकड़ों प्रकार का है। शमादि का पूर्णाभ्यास होने पर वह वस्तु प्राप्त होती है जिससे पृथक कुछ भी शेष नहीं रह जाता।

कृष्ण कहते हैं कि मेरे मन को ब्राह्मण और मेरी बुद्धि को ब्रह्माणी समझो, और क्षेत्र इस रूप से जिसका वर्णन किया गया है वह मैं हूँ।

परम ब्रह्म सम्बन्धी ज्ञान श्रेष्ठ है, संन्यास नामक आश्रम उत्तम है। जो मनुष्य अपने दृढ़ निश्चय द्वारा, पीड़ा आदि से रहित उस ज्ञान को जानता है और जो संपरिज्ञात अथवा समस्त जीवों में स्थित आत्मा को जानता है, उसके समस्त मनोरथ सिद्ध होते हैं। जो विद्वान संपरिज्ञात अवस्था में चिन्मय परमात्मा का सहवास, पृथकवास, एकत्व और अनेकत्व जान लेता है वह महान कष्टों से क्त जाता है। जिसे किसी बात का अभिमान नहीं है वह इस संसार में रहकर सशरीर अर्थात् जीवनमुक्त होता है। जो मनुष्य निर्भय और अहंकार हीन होकर, प्रधान माया, सत्वादि गुण और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति के कारण को जान सकता है उसे ही निस्सन्देह मोक्ष मिलता है।

अव्यक्त ज्ञान जिसकी मूल (जड़) है, बुद्धि जिसके स्कन्ध, अहंकार पल्लव, इन्द्रियाँ कोटरस्थ पत्राङ्कर, विषयसादि पञ्चमहाभूत पुष्पकोरक और स्थूल कार्य जिसकी डालियाँ हैं, पुरुष जिसकी सदा गिरने वाली पत्तियाँ हैं जिसके कर्म रूपी पुष्प हैं, और जो सुख-दुःख रूपी फलों से युक्त है, जो समस्त जीवों का उपजीव्य, संसार वृक्ष का बीजभूत है। उस सनातन ब्रह्म को विशेषरीत्या, जो जान लेता है और जान लेने के बाद ज्ञान रूपी तलवार से उस वृक्ष की अव्यक्तादि रूपी जड़ और डालिर्यो को काट डालता है वही मनुष्य जन्म मृत्यु से रूकारा पाकर मुक्त होता है। जीव जब तक आध्यात्मिक संन्यासाश्रम ग्रहण कर परमात्मा के साथ साक्षात्कार नहीं करता, जब तक जीव संन्यासाश्रम में ब्रह्म ज्ञान को प्राप्त नर्ही करता तब तक ही अग्नि, आकाश, वायु आदि दिखाई देते हैं, तभी तक भेद ज्ञान है।

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    अनुक्रम

  1. अपनी बात
  2. कामना
  3. गीता साहित्य
  4. भगवती चरित्र कथा
  5. शिवजी द्वारा काली के सहस्रनाम
  6. शिव-पार्वती विवाह
  7. राम की सहायता कर दुष्टों की संहारिका
  8. देवी की सर्वव्यापकता, देवी लोक और स्वरूप
  9. शारदीय पूजाविधान, माहात्म्य तथा फल
  10. भगवती का भूभार हरण हेतु कृष्णावतार
  11. कालीदर्शन से इन्द्र का ब्रह्महत्या से छूटना-
  12. माहात्म्य देवी पुराण
  13. कामाख्या कवच का माहात्म्य
  14. कामाख्या कवच
  15. प्रथमोऽध्यायः : भगवती गीता
  16. द्वितीयोऽध्याय : शरीर की नश्वरता एवं अनासक्तयोग का वर्णन
  17. तृतीयोऽध्यायः - देवी भक्ति की महिमा
  18. चतुर्थोऽध्यायः - अनन्य शरणागति की महिमा
  19. पञ्चमोऽध्यायः - श्री भगवती गीता (पार्वती गीता) माहात्म्य
  20. श्री भगवती स्तोत्रम्
  21. लघु दुर्गा सप्तशती
  22. रुद्रचण्डी
  23. देवी-पुष्पाञ्जलि-स्तोत्रम्
  24. संक्षेप में पूजन विधि

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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